महाराणा कुंभा – एक विलक्षण योद्धा
कीर्तिस्तम्भ में कुम्भा की प्रशंशा में लिखा है: “पृथ्वी को कम्पायमान करते हुए गुर्जर खंड और मालवा के अधिपति सुल्तानों ने अपनी समुद्र जैसी विशाल सेनाओं के साथ मेवाड़ पर आक्रमण किये तो कुम्भकर्ण ने भूमि को जाज्वल्यमान किया। हम उसकी कितनी प्रशंसा करें ! अपने शत्रुओं की सेनाओं के बीच सिंह के समान था अथवा सुनसान अरण्य में ज्योति के समान !”
अपने शत्रुओं –दिल्ली, नागौर, मांलवा और गुजरात के सुल्तानों के
निरंतर आक्रमणों को विफल कर उनको पराजित कर कुम्भा ने सशक्त मेवाड़ राज्य की नींव
डाली व नागौर की सल्तनत को मिटा कर मेवाड़ में मिला लिया। महाराणा कुम्भा की इन
निरंतर विजयों के पीछे उसकी नई युद्ध पद्धति थी जिसने राजपूत युद्ध कला को एक नई
दिशा दी। कुम्भा ने अपनी पूर्ववर्ती स्थितियों की समीक्षा कर सबसे पहिले दुस्साध्य
दुर्गों के निर्माण पर सर्वाधिक ध्यान दिया और वीर विनोद के अनुसार मेवाड़ सीमा पर
32 दुर्ग बनवाये जिनमें पश्चिमी सीमा पर सिरोही के निकट वसंतगढ,
मेरों को रोकने के लिये मचान और जाड़ोल के दुर्ग, भीलों से सुरक्षा के
लिये पनोरा का दुर्ग, मेवाड़-मारवाड़ सीमा पर कई दुर्ग,
दक्षिण में आबू पर अचलगढ व कुम्भलगढ आदि। सम्भवतः उसकी दुर्ग-युद्ध में महारथ के
कारण उसका एक विरुद शैलगुरु भी है। उसके प्रिय
वास्तु-कार्य विशारद और विख्यात शिल्प-शास्त्री व कुम्भलगढ दुर्ग के निर्माता मंडन
के ग्रंथ “वास्तुमंडनम” के अनुसार “जिस प्रकार गिरिग्रह में स्थित सिंह सभी
प्राणियों में बलवान होता है, वह सभी को परागमुख कर
सकता है, उसी प्रकार राजा दुर्ग निवासी हो प्रबल शत्रुओं पर विजय प्राप्त
कर सकता है। हज़ार हाथियों और लाख घोड़ों के बल की अपेक्षा राजा विजय की सिद्धि
अकेले एक दुर्ग से कर सकता है ( सिंहो दपि सर्व सत्वानां बलवान् गिरि गह्वरे
।स्थितं कृत्वा जयत्याषु वैरिवर्ग सुदारुणम्। गजानां तु सहसेण न च लक्षेणवाजिनाम्
। यत्कृत्यं साध्यतेराज्ञः दुर्गेण केन सिद्धति। वास्तुमंडनम 3,
4-5। मंडन के दूसरे ग्रंथ राजवल्लभ-वास्तुशास्त्रम् में भे यही लिखा है “सिंहो
वैरिपराभवं तिष्ठन गिरौ गह्वरे दुर्गस्थों नृपति प्रभूतकटकं शत्रुं जयते सगरे(राजवल्लभ-वास्तुशास्त्रम्
4.2)।
कुम्भा
ने युद्ध में यंत्रादि के नये प्रयोग भी किये जिसके लिये उसे प्रशस्तियों में ‘अभिनव
भारताचार्य’ भी कहा जाता है। सन 1467-68 ई. की रचित
शहाब हाकिम के ग्रंथ मासिर-ए-महमूदशाही के अनुसार सन 1456-57 ई. में मेवाड़-मालवा
युद्ध में कुम्भा ने नेफ्था की आग
(आतिशे-नफत) और तीर-ए-हवाई का प्रयोग किया (मासिर-ए-महमूदशाही, 57-58)। यह तीर-ए-हवाई या बान था जो कि बारूद के
विस्फोट होने के बाद आगे प्रक्षेपित होता था। इस यंत्र में बारूद का प्रयोग होता
था जिसको दागने पर यह सैन्य शिविर पर गिर कर उसे भस्म कर डालता था। मंडन ने ‘राजवल्लभ’ में लिखा है कि नगर की रक्षा के लिये
दुर्ग पर नाना युद्धोपयोगी यंत्रो की स्थापना की जाये।नगर में संग्रामयंत्र, वारूणास्त्र, आग्रेयास्त्र नामक यंत्र होने चाहिये।
इन यंत्रों की सुरामिष से पूजा करनी चाहिये, जिससे राजा की
विजय हो – यंत्रः पुराणामथ रक्षणाय संग्रामवहयम्बुसमीरणाख्याः ।विनिर्मितास्ते जवद
नृपाणां भवंति पुज्याः सूरया च मांसे (राजवल्लभ-वास्तुशास्त्रम् 4.21)।
मंडन ने कुम्भा के एक आग्नेयस्त्र वृहद
नालिका यंत्र का विवरण देते हुये कहा है कि इसे गाड़ी या पंज्जर से स्थानांतरित
किया जाता था व फणिनी, मरकटी, बांधिका, ज्योतिकया, वलणी, पट्ट आदि इसके अंग थे। मंडन ने वास्तुमंडनम के 60 श्लोकों में अग्नियंत्र
बनाने की विधि दी है व कोयला, श्वेत शिलाजित, गंधक, गैरिक आदि से बारूद बनाने की विधि समझाई गयी
है।यंत्र-विवरण कुम्भा के पुत्र राणा रायमल के काल में सूत्रधार नाथा द्वारा लिखित
ग्रंथ ‘वास्तुमंजरी’ में भी है। कुम्भा
से पूर्व के भारतीय ग्रंथों जैसे ‘शुक्रनीतिसार’ में भी बारूद बनाने व बारूद से संचालित नालिका यंत्रों का विवरण है (गुत्सव
ओपर्ट, ओन द वेपन्स, आर्मी
ओर्गेनाइज़ेशंस एंड पोलिटिकल मैक्सिम्स आफ द एंशियेंट हिंदूज़,
62-63)।
कुम्भा की युद्ध–संचालन में निपुणता का
संकेत ‘रसिकप्रिया’ और कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में उसके विरुद ‘छापागुरु’ ‘घायगुरु’ व ‘तोडरमल्ल’ से मिलता है। वह छापामार युद्ध का
प्रारम्भकर्ता था व धावा मारने में निपुण था। संगीतराज के
पाठ्य-रत्नकोश के अलंकारोत्सवमें दिये वर्णन के अनुसार सन 1458 ई. में गुजरात के
सुल्तान क़ुतुबुद्दीन ने जब चित्तौड़ का घेराव किया तो कुम्भा ने अचानक पहाड़ों से
निकलकर मुसलमानों पर आक्रमण कर उन्हें हरा दिया जिसे
“अज्ञातघातेषुश्केष्व्कस्मात्” शब्द का प्रयोग है। कुम्भा ने कई युद्ध रात्रि-धावों के कारण जीते। तबाक़त-ए-अकबरी के अनुसार
जब मांडू के सुल्तान ने चित्तौड़ को घेर लिया तो अचानक 26 अप्रेल 1443 ई. को रात्रि
में महाराणा ने क़िले से निकल अपनी सेना के साथ उस पर आक्रमण किया परंतु सुल्तान ने
दृढ पूर्वक उसका सामना किया और आक्रमण को विफल कर दिया। दूसरी रात्रि को इसी
प्रकार के युद्ध में सुल्तान ने राणा की सेना पर जवाबी आक्रमण कर दिया जिसमें
महाराणा को भी चोट आई एवं उसे चित्तौड़ की ओर लौटने को बाध्य होना पड़ा। सुल्तान भी
चित्तौड़ विजय को अगले वर्ष पर छोड़कर मांडू वापस आ गया”।
कुम्भा
का धावा मारने की प्रवीणता उसके तीव्र अश्वों व रणमल के राठौरों के कारण थी जिसके
सहयोग से उसने अपने राजतिलक (1433ई.) के पहले सात वर्षों में ही अपने सभी शत्रुओं
पर विजय प्राप्त कर ली थी। रणकपुर के 1439 ई. के शिलालेख के अनुसार “अपने कुल रूपी
कानन (वन) के सिंह राणा कुम्भकर्ण ने सारंगपुर, नराणक,
अजयमेरु, मांडू, मंडलगढ,
बूंदी, खाटू, चाटसू आदि सुदृढ और विषम
दुर्गों को लीला-मात्र व क्षणेन-मात्र से विजयी किया और अपने भुजबल से म्लेच्छ
महीपाल रूपी सर्पों का गरुड़ के समान दलन किया।प्रबल पराक्रम के साथ ढिल्ली और
गुर्जरत्र के राज्यों की भूमि पर आक्रमण करने के कारण वहां के सुल्तानों ने छत्र
भेंटकर उसे हिंदू सुरत्राण का विरुद प्रदान किया था”। सन 1440-41 ई में कुम्भा ने रणमल के नेतृत्व में
तीव्र अश्वों की सेना भेज डूंगरपुर नगर को विजित किया जिसका उल्लेख कुम्भलगढ
प्रशस्ति में है व संगीतराज प्रशस्ति में जिसके लिये ‘गिरिपुरडूंगरग्रहणसार्थकीकृतोग्राग्रहेण’ शब्द
अंकित है।
अपने
प्रबल शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर व पृथ्वी पर म्लेच्छों द्वारा व्याप्त
दुर्व्यवस्था दूर कर वैदिक व्यवस्था के पुनर्संस्थापक कुम्भा ने ‘वसुंधरोद्धरणादिवराहेण’ की उपाधि
धारण की और मांडू के सुल्तान पर विजय की स्मृति में विष्णु अवतार जनार्दन (आदि
वारह) को समर्पित कीर्ति-स्तम्भ चित्तौड़गढ में निर्मित किया जिसके लिये अमरकाव्य
कहता है “कीर्तिस्तम्भ के बहाने पृथ्वी हाथ उठा कर कह रही है कि चित्रकूट के समान
दुर्ग और कुम्भा के समान नरेश नहीं है”।
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