पुरुरवस्-उर्वशी : विश्व की प्रथम प्रेम-कथा
ऋग्वेद में आयी वैदिक संस्कृति की
पहली कथा उर्वशी और राजा पुरुरवा की मार्मिक प्रणय-गाथा है जो दो भिन्न संस्कृतियों की टकहराट का प्रतीक है। शतपथ ब्राह्मण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, महाकवि कालिदास संस्कृत नाटक महाकाव्य विक्रमोर्वशीय व आधुनिक हिंदी साहित्य में रामधारी
सिंह दिनकर की काव्यकृति ऊर्वशी का आधार यही प्रसंग है। महाभारत में भी यह वर्णन है कि जब अर्जुन इंद्र के पास
अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने गए तो उर्वशी उन्हें देखकर मुग्ध हो कामातुर हो गई।
अर्जुन ने अपने पूर्वज पुरुरवा की
पत्नि व पुरु वंश की जननी के रूप में ऊर्वशी को मातृवत
देखा। अतः उसकी इच्छा पूर्ति न करने के कारण इन्हें शापित होकर एक वर्ष तक पुंसत्व
से वंचित रहना पड़ा।
यह विद्धुत्मेय
स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की
नींद टूट जाती,
रोमों
में दीपक बल उठते हैं ॥’’
वह स्वर्ग
लोक लौट गयी परंतु उर्वशी का मन वहां न लग पाया। स्वर्ग में संध्या को एक प्रहसन (नाटक)
में लक्ष्मी के रूप में उसने पुरुषोत्तम विष्णु को पुकारने की जगह अनायास वह पुरुरवा
को पुकार बैठी। नृत्यनाटिका के रचयिता भरत मुनि ने क्रुद्ध हो तुरन्त उसे शाप दे दिया
: ‘‘तुमने मेरी नाटिका में चित्त नहीं रमाया। तुम भूलोक में जाकर
वहाँ पुरुरवा के साथ मनुष्य की भाँति ही रहो।’’
‘अभिसारिका’ उर्वशी अपने दो मेमनों(मेष) के साथ पुरुरवा के पास गंधमदन चली आयी। उसने पुरुरवा
से कहा, ‘‘राजन्, मैं तुम्हारे साथ रहूँगी, तुम्हारी वधु बनूँगी, किन्तु एक शर्त पर कि ‘मैं तुम्हें विवस्त्र कभी न देखूँ।’’ पुरुरवा ने
कहा ‘‘तथास्तु! मुझे यह शर्त मंजूर है।’’ उर्वशी के अभिसारिकारूप ने परुरवा को इतना प्रेमासक्त कर दिया कि
वह उर्वशीमय बन गया। दिनकर ने लिखा है-
“पर, मैं बाधक नहीं जहां भी रहो, भूमि या नभ में,
वक्षस्थल पर, इसी भांति,
मेरा
कपोल रहने दो।
कसे
रहो, बस इसी भांति, उस पीड़क आलिंगन में
और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन में।”
ग्रीष्म ऋतु में
इस प्रेम का कालिदास ने विक्रमोर्वशीयम में इस प्रकार वर्णन किया है:
अनुपनतमनोरथस्य
पूर्व्। शतगुणित गता मम त्रियामा, यदि तु तव समागमे तथैव्।
प्रसरति सुभ्रु ततः कृती भवेयम् (3.22)।
(पुरुरवा को
ग्रीष्म ऋतु की रात्रि छोटी होने के कारण व्याकुल करती है। वे चाहते हैं जो रात्रि
विरहावस्था में सौगुनी बड़ी लगती थी, वह उर्वशी के समागम में विस्तृत
हो जाये)
उर्वशी-सखि!
रोचते ते मेयं मुक्ताभरणभूषितो नीलांशुक परिग्रहोअभिसारिकावेषः (3.22)
(ग्रीष्म ऋतु
में उर्वशी अभूषण-रहित श्रिंगार कर व नीला झीना पतला वस्त्र धारण कर पुरुरवा के
पास जाने से पहले अपने इस अभिसारिका-श्रिंगार की अपनी सखि चित्रलेखा से प्रशंसा
चाहती है)
एक वर्ष बाद उर्वशी
ने पुरुरवा के पुत्र को जन्म दिया। उर्वशी को अपने मेमनों से इतना प्रेम था कि सोते-जागते
समय वह उन्हें अपने पलँग से बाँधकर रखा करती थी। एक रात को जब उर्वशी पुरुरवा
के साथ निर्वस्त्र प्रणय में लीन थी तब इंद्र ने अपने गन्धर्वों से उसका मेमना चुरवा
लिया। उर्वशी चीखी, ‘‘गन्धर्व मेरा मेमना चुराये लिये जा रहे
हैं!’’ पुरुरवा तत्काल उठ खड़ा हुआ और उसने गन्धर्वों का पीछा
किया। शीघ्रता में उसके रात्रिकालीन वस्त्र शरीर से छूट गये। तभी इंद्र ने बादलों से
बिजली चमका दी। उर्वशी ने उसे विवस्त्र देखा और वह पुरुरवा को विरह-विलाप में तड़पता दुखी छोड़ इंद्रलोक
चली गयी।पुरुरवा की व्यथा दिनकर के शब्दों में :
“मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रमु पर छायेंगे,
पारिजात-वन के प्रसून आहों से कुम्हलायेंगे
मेरी मर्म-पुकार मोहिनी वृथा नहीं जायेगी,
आज नहीं तो कल तुझे इन्द्रलोक में वह तड़पायेगी।
ऋग्वेद में पुरुरवा-उर्वशी संवाद बिना किसी पूर्वपीठिका
के अचानक शुरू हो जाती है- उर्वशी को जाते देख विरहोन्मत पुरुरवा
कहता है- ‘आह, हे पत्नी, अपना यह हठ छोड़ दो। अरे ओ हृदयहीन, आओ हम प्रेमालाप
करें।’ उर्वशी- ‘तुमसे अब कैसा प्रेमालाप ? उषा की पहली किरण की तरह मैं उस
पार जा चुकी हूं। हे पुरुरवस, अपनी नियति में लौट जाओ।
मुझे पकड़ना उतना ही कठिन है, जितना पवन के झोंके को पकड़ना (हुये
जाये मनसा तिष्ठ घोरे, वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु। न नौ
मंत्रा अनुदितास, एते मयस्करन् परंतरे चनाहन्। किमेता
वाचा कृणवा, तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव। पुरुरवः
पुनरस्तं परेंहि, दुरापना वात इवाहमस्मि 10.95.1)। लेकिन पुरुरवा पुनः उसे रोकने का प्रयास करता
है और अपने प्राण त्याग करने का प्रयत्न करता है तब उर्वशी कहती है, ‘ हे पुरुरवस् । अपने प्राण न लो और स्वयं को इतना न गिराओ कि भूखे
भेड़ियों तुम्हे अपना भोग्य बना लें। स्त्रियों के साथ प्रेम नहीं हो सकता, उनके हृदय भेडियों के हृदय की भांति होते हैं (पुरुरवो मा मृथा प्र पप्तो , मा
त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्, न वै स्त्रैणानि सख्यानि
संति, सालावृकाणां हृदयान्येता 10.95.15)’। शांत हो कर पुरुरवा कहता है-
‘मैं, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ,
वायुमंडल को अपने विस्तार से भर देने वाली, आकाश पार करने वाली उर्वशी के आगे नतमस्तक हूं। सभी सत्कर्मों का पुण्य
तुम्हारा हो, पलट जाओ, मेरा हृदय
(भय से) उत्तप्त है।’ यह प्रकरण जिस तरह अचानक
शुरू हुआ था, उसी तरह समाप्त हो जाता है, उर्वशी के इस कथन के साथ - ‘ये
देवता तुझसे यही कहते हैं, इला के पुत्र; अब तेरी मृत्यु निश्चित है। तेरी
संततियां देवताओं को बलि अर्पित करती रहेंगी, लेकिन तू
स्वयं स्वर्ग में आनंद करेगा(ऋग्वेद 10.95.18)।’
पुरुरवा
पर्वतों व वनों में उर्वशी को अर्ध-विक्षिप्त हो ढूंंढता फिर रहा है। कालिदास ने
विक्रमोर्वशीयम में इसका सुंदर विवरण दिया है:
नव जलधर सन्नध्द्योयं न दृष्टनिशाचरः सुरधनुरिदं
दूराकृष्टं न नामशरासनम् अयमपि पटुधारासारो न बाण परम्परा। कनकनिकषास्नि ग्धा
विद्युत्प्रिया मम नोर्वशी (4.7)।
(पुरुरुवा वर्षा ऋतु में अपने व्याकुल मन से कहते हैं
कि ये घुमड़ते काले बादल हैं, निशाचर नहीं; यह
इंद्रधनुष है, कानों तक खींचा गया धनुष नहीं; यह मूसलाधार जलवृष्टि है, बाणों की वर्षा नहीं। यह
कसौटी पत्थर पर बनी स्वर्ण-रेखा के समान चमचमाती हुई बिजली है मेरी प्रिय उर्वशी
नहीं)
आरक्त राजभिरियं कुसुमैर्नव कंदली सलिलगर्भेः।
कोपादंतर्वाष्पे स्मरयति मां लोचने तस्याः। (4.15)
(पुरुरवा कहते हैं कि इस कंदली वृक्ष के लाल धारियों
वाले नव-पुष्प में भरा हुआ वर्षा-जल मुझे प्रयण-कुम्पित उर्वशी की उन्माद-मत्त
डबडबाई आंखों में उभरती लाल धारियां की याद दिला रहे हैं)
महदपि परदुःख शीतलं सम्यगाहुः ,
प्रणयमगण्यित्वायन्ममापदगतस्य । अधरमिव मदांध पातुमेषा प्रवृत्ता फलमभिमुखपाकं
राजजम्बू द्रुमस्य (4.17)
(दूसरों के दुखों को शीतल बताने वाले शायद सही हैं।
मेरे प्रणय-विरह के संताप की परवाह न कर यह मतवाली कोयल जामुन के वृक्ष के पके फल
को इस प्रकार खाने में लही है जैसे कोई प्रिय जन के अधरों का पान कर रहा हो)
कथं सेंद्रगोपं नवशाद्वलमिदम् । कुतो न खलु निर्जने वने
प्रिया प्रवृत्ति रत्र गमयितव्या । नीलकंठ । ममोत्कंठा वनेअस्मिन् वनिता त्वया।
दीर्घापाड़गां सितापाड़गां दृष्टा दृष्टिक्षमा भवेत (4.21)
(वर्षा ऋतु में विकसित हरी घास पर चलती हुई मखमली लाल
वर्ण की वीर वधूटियों को देख कर पुरुरवा प्रसन्न होता है, तत्क्षण
ही उन्हें इस निर्जन वन में प्रियतमा उर्वशी की याद आ जाती है। हे श्वेत
नेत्र-कनीनिकाओं वाले नीलकण्ठ (मयूर)! तुमने मेरी उन्नत कण्ठ वाली, विशाल नेत्रों वाली दर्शनीय उर्वशी को शायद इस वन में देखा हो? )